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52 सालों में यश चोपड़ा ने पूरा साम्राज्य खड़ा कर दिया - Yash Chopra put the whole empire in 52 years


रेशमी ख्वाबों को रुपहले पर्दे पर उतारने वाले जादूगर थे यश चोपड़ा मुंबई की माया नगरी में उन्हें पैर टिकाने का एक मौका मिला था। 1959 में जब उन्होंने पहली फ़िल्म निर्देशित की और फिर अगले 52 सालों में उस शख्स ने पूरा साम्राज्य खड़ा कर दिया।
हिंदी सिनेमा का शायद ही कोई ऐसा नाम हो जो यश राज के साथ काम करने को आतुर ना रहा हो। यश राज बैनर तो अब भी है, लेकिन यश चोपड़ा नहीं रहे। डेंगू की चपेट में आ कर 22 अक्टूबर 2012 को यश चोपड़ा को ये दुनिया छोड़नी पड़ी। यश चोपड़ा की दास्तान एक ऐसे इंसान की कहानी है जो रेशमी ख़्वाबों को रूपहले पर्दे पर उकेरना जानता था। उसके ख़्वाब इतने दिलचस्प और दिलकश होते थे, कि लाखों करोड़ों दर्शक उन्हें अपना सपना मान कर उसमें डूबता उतरता रहता था।

27 सितंबर 1932 में लाहौर में जन्मे य़श राज चोपड़ा को भारत विभाजन के कुछ समय बाद अपने बड़े भाई बलदेव राज चोपड़ा यानी बीआर चोपड़ा के पास मुंबई आना पड़ा। जो उस समय तक फ़िल्म उद्योग में पहले फ़िल्म पत्रकार और फिर फ़िल्मकार के रूप में स्थापित हो चुके थे। उनके पिता का निधन हो चुका था और उम्र में 18 साल बड़े भाई बीआर चोपड़ा ही उनके लिये सब कुछ थे।

पिता की ख़्वाहिश थी की यश इंजीनियर बने, लेकिन वो मुंबई पहुंचकर बड़े भाई के साथ फिल्म निर्माण से जुड़ गए। कुछ छोटी जिम्मेदारियां निभाने के बाद यश फिल्मकार आईएस जौहर के सहायक बने और फिर अपने बड़े भाई के सहायक के रूप में काम करने लगे। कम बोलने वाले यश अगले कई साल तक फ़िल्म निर्देशित करने की अपनी इच्छा बड़े भाई से स्पष्ट रूप से नहीं ज़ाहिर कर सके।

फिर एक दिन अपनी टीम के कई सदस्यों के कहने पर बीआर चोपड़ा ने यश को ‘धूल का फूल’ निर्देशित करने का मौका दिया। जिस दौर में यह फ़िल्म बनी वह कठोर परंपरावादी सामाज का दौर था। नैतिकता की डोर बहुत मज़बूत हुआ करता थी। ऐसे में बिन ब्याही मां को समाजिक स्वीकृति दिलाने वाली कहानी पर काम करना आग में हाथ जलाने जैसा था। लेकिन ‘धूल का फूल’ अपने समय के बेहद सफ़ल फ़िल्म साबित हुई। इसकी कहानी के चर्चे तो हुए ही साथ ही नारी सौंदर्य को यश चोपड़ा के नज़रिए से पेश करने की शुरूआत भी हुई। इस क्षेत्र में राजकपूर और गुरूदत्त मील का पत्थर बन चुके थे, लेकिन ‘धूल का फूल’ में माला सिन्हा की पेश की गयी मादक छवि को यश ने अपने दोनों समकालीनो से अलग हट कर पेश किया। इसी तरह आदर्श नारी और बहन की छवि में क़ैद हो चुकीं नंदा के सौंदर्य को जिस ख़ूबी से यश चोपड़ा ने फ़िल्म ‘इत्तेफ़ाक़’ में प्रस्तुत किया वह नंदा के जीवन की विलक्षण भूमिका साबित हुई। उनकी अगली फ़िल्म से लेकर ‘वीर ज़ारा’ (2004) तक देखने पर एहसास होता है कि रुपहले पर्दे पर हुस्न को कैसे चार चांद लगाए जाते हैं, इसमें यश चोपड़ा माहिर थे।
‘धूल का फूल’ के बाद एक बार फिर बीआर चोपड़ा के लिए यश ने ‘धर्मपुत्र’ (1962) का निर्देशन किया। फ़िल्म आयी और चली गयी। धूल का फ़ूल की कामियाबी की ख़ुशी को धर्मपुत्र की असफ़लता ने दफ़्न कर दिया। यश चोपड़ा के लिए यह बड़ा आघात था। लेकिन वे निराश नहीं हुए और अगली फ़िल्म की तैयारी में जुट गए। अगली फ़िल्म थी ‘वक़्त’। यश चोपड़ा द्वारा निर्देशित पहली रंगीन फ़िल्म, पहली मल्टी स्टारर फ़िल्म।

वक़्त’ ने  ‘धूल का फ़ूल’ से आगे बढ़ कर कामियाबी के रास्ते तय किये इस फ़िल्म से यश चोपड़ा निर्विवाद रूप से महत्वपूर्ण फ़िल्मकारों की कतार में नज़र आए। फ़िल्म ‘वक़्त’ से ही यश चोपड़ा की फ़िल्मों में भव्यता और चमक दमक ने जगह बनायी। बड़े विशाल सेट, रंगबिरंगे कपड़ों और गहनो से सजी महिलाएं, दिलकश संगीत, बड़े और मंहगे बंगले यानी सिनेमा को भव्य बनाने के लिये जो कुछ संभव है करो वाली नीति पर यश चोपड़ा का सिनेमा चल निकला।
भव्यता को ही नया आयाम देने के लिए विदेशी लोकेशंस पर गीतों की चाशनी भी डाली जाने लगी। आगे चल कर अपनी फ़िल्मों में उन्होंने स्विट्ज़रलैंड को अलग-अलग पहलुओं से इतनी बार दोहराया कि स्विट्ज़रलैंड में यश चोपड़ा के नाम पर एक झील का नाम रख दिया गया। वक़्त के लिए यश चोपड़ा को फ़िल्म फ़ेयर का सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का अवॉर्ड मिला।

लेकिन अगली फ़िल्म ‘आदमी और इंसान’(1967) यश चोपड़ा के जीवन की बड़ी फ़्लॉप फ़िल्मों में से एक साबित हुई। ये शायद इत्तेफ़ाक़ ही थी कि फ़िल्म ‘आदमी और इंसान’ बनाने के दौरान फ़िल्म की हिरोइन सायरा बानो की तबियत ख़राब हो गयी और फ़िल्म की शूटिंग रूक गयी।

इस दौरान यश चोपड़ा को एक कहानी मिली। शायरी और संगीत के रसिया और मर्मज्ञ यश चोपड़ा ने इस कहानी के आधार पर गीत विहीन बहुत ही छोटे बजट की फ़िल्म ‘इत्तेफ़ाक़’(1969) बना डाली। दो घंटे से भी कम समय की एक ही सेट पर फ़िल्मायी गयी इस फ़िल्म को भारतीय सिनेमा के सौ सालों के इतिहास में बनी सस्पेंस फ़िल्मों में सर्वाधिक महत्वपूरण स्थान हासिल है। इस फ़िल्म ने यश चोपडा़ को सिर्फ़ रोमांटिक फ़िल्मे बनाने वाले फ़िल्मकार के दायरे से भी बाहर निकाला। ‘इत्तेफ़ाक़’ के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार दिया गया।

अगला साल यानी 1970 यश चोपड़ा की ज़िंदगी का सर्वाधिक महत्वपूर्ण साल साबित हुआ। इस साल उन्होंने पामेला चोपड़ा से शादी की और बड़े भाई की छाया से बाहर निकलने का फ़ैसला भी लिया। तब तक यश चोपड़ा अपने भाई की कंपनी में एक कर्मचारी का हैसियत से मासिक वेतन पर काम कर रहे थे। अब उनकी शादी हो चुकी थी और अपनी दुनिया बसाने का सपना आंखों में करवट लेने लगे था। आख़िरकार अपने जन्म दिन के मौक़े पर 27 सितंबर 1971 को यश चोपड़ा ने अपनी फ़िल्म कंपनी यशराज फ़िल्म की बुनियाद डाली और इस बैनर के नीचे पहली फ़िल्म बनायी ‘दाग़’।

सफलता के कई कीर्तिमान गढ़ने वाली फ़िल्म ‘दाग़’(1973) ने यश चोपडा़ को बेमिसाल निर्देशक के साथ साथ एक सक्षम निर्माता के रूप में भी स्थापित किया। ‘दाग़’ के बाद यश चोपड़ा ने गुलशन राय के लिए ‘जोशीले’ (1973) बनायी। महज़ देवानंद को महामंडित करने वाली ये फ़िल्म यश चोपड़ा की सर्वाधिक कमजोर सफल फ़िल्म रही, लेकिन गुलशन राय के लिये अगली फ़िल्म ‘दीवार’(1975) बनाकर यश चोपड़ा ने इतिहास रच दिया।
कई मायनो में ‘दीवार’ हिंदी सिनेमा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण फ़िल्मों में से एक साबित हुई। दीवार के बाद यश चोपड़ा की लगातार चार फ़िल्मों ‘कभी- कभी’, ‘त्रिशूल’, ‘काला पत्थर’ और ‘सिलसिला’ में नायक अमिताभ बच्चन बने। एक ओर जहां उन्होंने अमिताभ की क्रुद्ध युवा छवि को चरम पर पहुंचाया वहीं ‘कभी-कभी’ और सिलसिला के जरिए अमिताभ को रूमानियत का ऐसा जामा पहनाया कि वो अमिताभ के जीवन ही नहीं भारतीय सिनेमा की भी यादगार रोमांटिक फ़िल्मे बन गयी। इसी फिल्म के बाद यश चोपड़ा ने फिर अपना रूख़ सामाजिक सरोकारों की तरफ़ किया, लेकिन उनका प्रयोग असफ़ल रहा उनकी लगातार तीन फ़िल्में ‘मशाल’, ‘फ़ासले’ और ‘विजय’ असफ़ल हुईं। लगातार असफ़लताओं ने यश को अंदर तक हिला दिया।
आत्मविश्वास को फिर से इकट्ठा कर रहे यश चोपडा़ को अब एक ऐसी फिल्म की जरूरत थी जो उन्हें उनकी पुरानी प्रतिष्ठा दिला सके, लेकिन हिंदी सिनेमा के उस वीरान समय मे ऐसा कर पाना एक चमत्कार ही होता। फिर 1989 में यश चोपड़ा ने चमत्कार कर दिया। पिछले बीस सालों में एक शो पीस के तौर पर इस्तेमाल की जा रही नायिका को केंद्र में रख तक उन्होंने फ़िल्म बनायी ‘चांदनी’ और एक झटके में लोग यश चोपड़ा की सभी असफ़लताओं को भूल बैठे। यह फ़िल्म श्री देवी के करियर की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म तो थी ही साथ ही पिछले 25 सालों की सर्वश्रेष्ठ नायिका प्रधान फ़िल्म भी साबित हुई।

उम्मीद थी की चांदनी के बाद गहरी रूमानियत को केंद्र में रख कर यश चोपड़ा की फिर कोई फिल्म आएगी। फिल्म तो आयी, लेकिन ‘लम्हे’ नाम की ये फ़िल्म आलोचकों द्वारा सराहे जाने के बावजूद अपने समय में बाक्स आफ़िस पर सफ़ल नहीं हो सकी। यश चोपड़ा 1993में मोहब्बत पर ही आधारित लेकिन अपने मिजाज से अलग फ़िल्म ‘डर’ लेकर सामने आए। यह प्रेम को केंद्र में रख कर बनाई गयी बेहद क्रूर फिल्म थी। ‘डर’ ने प्रेम के कई समीकरण गड़बड़ा दिए।

यश चोपड़ा अपने पसंदीदा अभिनेता शाहरुख खान को लेकर फिल्म बना डाली साथ ही ये एलान भी कर दिया कि ‘जब तक है जान’ उनकी अंतिम फिल्म होगी। लेकिन नियती को यह मंज़ूर नहीं था कि यश चोपड़ा अपनी अंतिम फिल्म का पहला शो देख सकें फ़िल्म रिलीज़ होने से पहले यश चोपड़ा की ज़िंदगी का सफ़र थम गया।


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