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बड़े बैनर की फिल्मों का अलग महत्व है। अधिकांश कलाकारों को बड़े निर्माता की फिल्में करने की ख्वाहिश रहती है, चाहे उसमें उनका रोल कैसा भी क्यों न हो, लेकिन कुछ की सोच अलग है। एक दशक पहले छोटे बजट की फिल्मों से अपने करियर का आगाज करने वाले सोनू सूद के लिए बैनर से ज्यादा किरदार मायने रखते हैं। तभी तो दबंग जैसी बड़ी फिल्म के सीक्वल में काम करने से उन्होंने मना कर दिया। सोनू की आने वाली फिल्म मैक्सिमम है। इसमें वे एक पुलिस अफसर की भूमिका में हैं। बातचीत सोनू सूद से..
फिल्म मैक्सिमम की कहानी और उसमें अपने किरदार के बारे में बताएंगे?
यह मुंबई की पृष्ठभूमि पर बेस्ड है। साल 2003 से 2008 की कहानी है, जब मुंबई अंडरवर्ल्ड से जूझ रहा था। तब कुछ ऐसे जांबाज पुलिस अफसर लाए गए, जिन्होंने शहर को इस दलदल से बाहर निकाला। मैं फिल्म में पुलिस अफसर प्रताप पंडित की भूमिका में हूं। यह एनकाउंटर स्पेशलिस्ट है। अपराधियों का सफाया करने के बाद अपने परिवार के साथ सामान्य जिंदगी बिताता है। मेरे लिए ऐसी भूमिका करना बेहद मुश्किल था। यह कैसे मुमकिन है कि एक अफसर एनकाउंटर कर के आए और अपने बीवी-बच्चों के साथ खाना खाए और आम आदमी जैसा व्यवहार करे। मैं ऐसे अधिकारियों के माइंडसेट की स्टडी करना चाहता था कि वे कैसे तालमेल बिठाते होंगे?
? पुलिस वाली पिछली फिल्मों से यह कितनी अलग है?
इसमें किसी किस्म का हीरोइज्म नहीं है। यह ऐसी ऐक्शन फिल्म है, जिसमें एक भी किक या पंच नहीं है। सिर्फ गोलियां चली हैं। बेहद रियलिस्टिक अप्रोच है। डायरेक्टर कबीर कौशिक चाहते थे कि कुछ भी बनावटी न लगे। मेरे डोले-शोले न दिखें, इसके लिए मुझसे ढीली शर्ट पहनने को कहा। टी-शर्ट पहनी तो कहने लगे कि जैकेट पहन लो, वरना बॉडी दिखने लगेगी।
रेफरेंस प्वॉइंट की बात करें, तो आपका किरदार किस पुलिसवाले के करीब है?
सच बताऊं, तो बिल्कुल पता नहीं है। जब मुझे स्क्रिप्ट मिली, तो उस पर लिखा हुआ था 48 वां ड्राफ्ट। मतलब उस पर काफी रिसर्च वर्क हो चुका था। मैंने फिर बहुत सारे एनकाउंटर स्पेशलिस्ट से बात कर उनकी तरह व्यवहार करने का तरीका सीखा। इस तरह कई पुलिस अफसरों के रेफरेंस देखने को मिलेंगे। जो लोग मुंबई के इतिहास से वाकिफ हैं, वे फिल्म देखते ही समझ जाएंगे कि हम किनकी बात कर रहे हैं।
कबीर कौशिक के बारे में कहा जाता है कि उनका कलाकारों के साथ झगड़ा हो जाता है। आपका कैसा अनुभव रहा?
उनके साथ लोगों के मनमुटाव होते होंगे, लेकिन मुझे ऐसा कुछ नहीं लगा। मेरा मानना है कि वे थोड़े सिंसियर इंसान हैं, जबकि कलाकारों का तरीका दूसरा होता है। वे चाहते हैं कि उनके आसपास थोड़ी मस्ती होती रहे। इस किस्म के कबीर नहीं हैं। इसलिए मुमकिन है कि कुछ लोगों के साथ उनके पंगे हो जाते होंगे। वे काफी फोकस्ड हैं। इसलिए वे भी एक ऐक्टर से एक्सपेक्ट करते हैं कि वह उसी मिजाज का हो। हमारी ट्यूनिंग इसलिए हो पाई, क्योंकि मुझे भी फिल्मों के अलावा और कुछ नहीं सूझता।
साउथ की फिल्मों के लिए आपने हिंदी फिल्में भी छोड़ी हैं?
हां, यहां मुझे बेकार फिल्में नहीं करनी थीं, इसलिए साउथ की फिल्मों के लिए मैंने हिंदी फिल्में छोड़ीं। तेलुगु इंडस्ट्री की सफलतम फिल्मों में से एक अरुंधति दी। एक निरंजन, दुखडू और कंगरिधा में भी मेरे काम की तारीफ हुई। फिर मैंने तमिल में दबंग की। वहां भी छेदी सिंह ही बना था। इन सभी ने मुझे अच्छी हिंदी फिल्में हासिल करने में मदद की।
यही वजह रही कि दबंग -2 छोड़ने का फैसला कर लिया?
नहीं। इसमें मेरे लायक कुछ नहीं था। लोग छेदी सिंह के बारे में जो उम्मीदें लेकर सिनेमा देखने आते, उन्हें कुछ खास नहीं मिलता। यह बात मैंने अरबाज से की। हम दोनों चाहते थे कि यह फिल्म मैं करूं, लेकिन क्रिएटिवली शायद यह कहीं न कहीं जस्टिफाई नहीं हो रहा था। फिर मैंने उनके साथ बैठकर यह तय किया कि मैं फिल्म न करूं, तो बेहतर है।
इसका मतलब यह कतई नहीं है कि हमारे बीच रिश्ते बिगड़ गए हैं। दोनों एक-दूसरे को अच्छी तरह जानते और समझते हैं। दबंग-3 या दबंग-4 जब कभी बनेगी, मैं जरूर इसमें काम करना पसंद करूंगा।
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