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और अमजद बन गए गब्बर


Amjad Khan

इतना सुनने के बाद अमजद ने आगे कुछ कहना अच्छा नहीं समझा और यह सोचकर कि शायद वालिद ने ही कहा हो, चुप रह गए। फिर अमजद लग गए वहीं। बड़ी रईसी वाली असिस्टेंसी थी। घर से टैक्सी पकड़ी और पहुंच गए फिल्मालय स्टूडियो। इसी तरह काम चलता रहा। जब महीना पूरा हुआ, तो तनख्वाह की आस हुई, लेकिन एक महीना बीता, दो महीना बीता, फिर तीसरा महीना भी। उसके बाद जब मुंह खोला, तो तनख्वाह के बदले यह कहा गया, तुम जयंत साहब के लड़के हो, तुम्हें पैसे की क्या जरूरत है..?

खैर, असिस्टेंसी में अमजद ने एक सफाईकर्मी की तरह भी काम किया। उसी दौरान फिल्म लीडर के निर्देशक राम मुखर्जी के साथ एक दिन झड़प भी हो गई। जिस कारण अमजद ने उनका कॉलर तक पकड़ लिया और बातचीत के बाद अमजद ने फोकट की यह असिस्टेंसी सदा के लिए छोड़ दी और कॉलेज में रंगमंच को अपनाया। वे यहां अभिनय करने लगे।

उसके बाद अमजद खान ने निर्माता-निर्देशक के. आसिफ के साथ सहायक निर्देशक के रूप में भी काम किया और उन्होंने दर्शनशास्त्र से एमए किया। नाटक से तो वे जुड़े थे ही। इस कारण उन्हें देश के कोने-कोने में जाना पड़ता था। इस क्रम में उन्हें दिल्ली में आयोजित नाट्य समारोह के एक नाटक में अपनी भूमिका को ऐसे जीवंत किया कि लोग देखकर दंग रहे गए। तारीफ करने वाले लोगों में निर्माता-निर्देशक चेतन आनंद भी थे।

उन्होंने अपनी फिल्म हिंदुस्तान की कसम में एक फौजी की छोटी- सी भूमिका दे दी। वे इस फिल्म में प्रिया राजवंश के प्रेमी बने थे, लेकिन जब हिंदुस्तान की कसम रिलीज हुई तो अमजद दो-चार दृश्यों में ही दिख कर रह गए। इसके लिए अमजद ने चेतन आनंद से आग्रह भी किया कि मेरा नाम कास्टिंग में पहले दें पर चेतन ने ऐसा नहीं किया। इसके बाद अमजद ने ख्वाजा अहमद अब्बास की दूसरी फिल्म लव ऐंड गॉड में भी छोटी सी भूमिका की, लेकिन यह फिल्म तब पूरी न हो सकी, क्योंकि फिल्म निर्माण के समय ही सबसे पहले के. आसिफ का निधन हो गया, इस कारण फिल्म रुक गई।

देखा जाए तो यह फिल्म बहुत साल बाद पूरी हुई, लेकिन इसके कास्ट के कई लोग एक के बाद एक दुनिया से गुजर गए। यह फिल्म बाद में तब जाकर पूरी हुई, जब निर्माता-निर्देशक के सी बोकाडि़या ने इस फिल्म को अपने हाथ में लिया। उन्होंने भी अंत में संजीव कुमार के डुप्लीकेट से बाकी काम करवाया था। फिल्म में बिखराव स्पष्ट दिखा, जिस कारण फिल्म नहीं चली। इस फिल्म में अमजद ने एक हब्शी गुलाम की छोटी सी भूमिका निभाई थी। फिर अमजद खान की एक और फिल्म माया आई। इसमें देव आनंद और माला सिन्हा की मुख्य भूमिकाएं थीं। खल भूमिका में थे अमजद के पिता जयंत। इसके साथ ही अमजद फिल्मों में एक दो-दृश्य के अभिनेता बनकर काम करते रहे। वे रंगमंच पर अभिनय कर रहे थे और पूरे मन से फिल्मी दुनिया में आने के लिए तैयार थे।

यह सन 1973 की बात है। निर्देशक रमेश सिप्पी अपनी नई फिल्म शोले शुरू करने जा रहे थे। जिसकी पटकथा लेखक जोड़ी सलीम-जावेद ने तैयार की थी। लेखक सतीश भटनागर भी साथ थे, लेकिन उनका नाम अतिरिक्त संवाद लेखक के रूप में था। फिल्म में गब्बर सिंह की भूमिका के लिए अमजद चुनने वाले पहले कलाकार नहीं थे।

डैनी, जो उस समय के टॉप के विलेन कहलाते थे, उन्हें ही गब्बर सिंह के रोल के लिए चुना गया था। डैनी तब फिरोज खान की द गॉडफादर पर आधारित फिल्म धर्मात्मा में व्यस्त थे। साथ ही तारीख की भी समस्या थी। उन्हें यह भी पता चला कि शोले की शूटिंग बेंगुलुरु में होगी और धर्मात्मा की अफगानिस्तान में। तब विदेशी लोकेशन पर शूटिंग के लिए जाना बड़ी बात होती थी। इन बातों पर गौर कर डैनी ने बंगलुरु की बजाय अफगानिस्तान जाना पसंद किया।

फिर शोले की टीम ने गब्बर के रोल के लिए शत्रुघ्न सिन्हा के बारे में विचार किया, लेकिन यहां भी निराशा हाथ लगी। वजह साफ थी कि उन्हें यह रोल पसंद नहीं था। वे इसमें हीरो के रोल की चाहत रखते थे। हां, कुछ रोल के लिए कलाकार चुन लिए गए थे।

इसी समय शोले की पूरी कास्ट दिल्ली आई थी। वे सब शाम को नाटक देखने मंडी हाउस गए। इस नाटक में रमेश सिप्पी की बहन भी काम कर रही थीं और अमजद खान भी। रमेश सिप्पी और सलीम-जावेद को अमजद की संवाद अदायगी और अभिनय इतना अच्छा लगा कि उन्होंने सभी कलाकारों को दिमाग से निकाल दिया और अमजद खान को गब्बर सिंह के लिए तुरंत साइन कर लिया। इस तरह अमजद की जिंदगी में शोले आ गई और उन्हें तुरंत बंगलुरु चलने की तैयारी करने के लिए कह दिया गया।

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