फिल्म : कपूर एंड सन्स
सितारे : सिद्धार्थ मल्होत्रा, आलिया भट्ट, फवाद खान, ऋषि कपूर, रजत कपूर, रत्ना पाठक,
निर्देशक : शकुन बत्रा
निर्माता : हीरू यश जौहर, करण जौहर, अर्पूव मेहता
संगीत : अमाल मलिक, बादशाह, आकरो, तनिष्क बागची, बेनी दयाल, न्यूक्लिया
कहानी : शकुन बत्रा, आयशा देवित्री ढिल्लन
गीत : बादशाह, डॉ. देवेन्द्र काफिर, अभिरुचि चंद, मनोज मुंतशिर, कुमार, प्रदीप
रेटिंग : 3 स्टार
करण जौहर अक्सर कहा करते हैं कि उन्हें फिल्मों में गरीबी-गुरबत, त्रासदी, शोषण वगैरह दिखाना पसंद नहीं है। फिल्मों में रोने-धोने के दृश्यों के वह हिमायती रहे हैं, लेकिन ड्रामे के ओवरडोज के साथ। उन्हें भव्य पारिवारिक फिल्मों के अलावा नई पीढ़ी की फास्ट-फूड सरीखी रोमांटिक फिल्मों को बनाने का भी श्रेय जाता है।यही वजह है कि निर्देशन की कमान उनके हाथ में हो या उनके बैनर के तले उनके किसी पसंदीदा निर्देशक के हाथ में, वह अपने सिद्धांतों आसानी से नहीं भटकते।
ये कहानी है दो भाइयों अर्जुन (सिद्धार्थ मल्होत्रा) और राहुल (फवाद खान) की, जिसमे दोनों भाई लेखक है, जहा राहुल लंदन में सफलता की उचाई को छू रहा है तो वही अर्जुन न्यू जर्सी में आज भी संघर्ष कर रहा है । इनके माता-पिता हर्ष कपूर (रजत कपूर) और सुनीता (रत्ना पाठक) यहां भारत में कुन्नूर में रहते हैं।
एक दिन इनके दादा रमेश चंद कपूर उर्फ दादू (ऋषि कपूर) को दिल का दौरा पड़ जाता है। खबर मिलते ही ये दोनों दादू से मिलने भारत आ जाते हैं। घर आते ही वही सब। हर्ष की बात-बात पर सुनीता से तू तू मैं मैं। हर्ष, बात-बात में सुनीता के बहन की तारीफ करता है और तंज सकता है, तो सुनीता भी उसे एक असफलत बिजनेसमैन होने का ताना देती रहती है। अपने माता-पिता की नोंक-झोंक से ये दोनों भाई परेशान रहते हैं। लेकिन मौका मिलने पर एक-दूजे को नहीं बक्श्ते भी नहीं हैं। कभी राहुल ने अर्जुन के नोट्स पर एक नावेल लिख शोहरत बटोरी थी, जिसका खामियाजा अर्जुन आज भी भुगत रहा है और जिसकी वजह से दोनों के बीच हमेशा एक तनाव-सा रहता है।
जैसा की हर घर में होता है छोटा बेटा राहुल मां-बाप का 'राजा बेटा' है अर्जुन को इस बात का भी गम है । इन तमाम बातों के बावजूद इस कपूर फैमिली में शाम तक सब ठीक हो ही जाता है। एक दिन अर्जुन की मुलाकात टिआ (आलिया भट्ट) से होती है। एक अन्य घटनाक्रम के तहत एक दिन टिआ राहुल से भी मिलती है। टिआ को नहीं पता कि ये दोनों आपस में भाई हैं। इनकी दोस्ती बढ़ती जाती है और दिल ही दिल अर्जुन टिआ को चाहने लगता है।
दादू के अस्पताल से घर वापस आने पर अर्जुन-राहुल मिल कर एक सरप्राइज पार्टी रखते हैं। दादू की बस एक ही ख्वाहिश है कि मरने से पहले उनका एक फैमिली फोटो हो, जिसमें उनके दोनों बेटे अपने पूरे परिवार संग शामिल हों। ये मौका बन भी जाता है, लेकिन उसी दिन हर्ष-सुनीता के बीच कहासुनी की सारी हदें पार हो जाती हैं। गुस्से में हर्ष घर से निकल जाता है और फिर कभी वापस नहीं आता। कपूर परिवार बिखर जाता है और दादू का सपना अधूरा रह जाता है।
मौजूदा दौर में भारतीय शहरी परिवारों, उनके रिश्तों, तनाव, हंसी-खुशी और दिक्कतों को अख्तर (जोया और फरहान) और जौहर ने पारंपरिक बंधनों से दूर एक नई जबान दी है। दोनों का ही अंदाज और शिल्प लगभग एक जैसा ही है। इनके परिवार राजश्री-बड़जात्या (सूरज बड़जात्या) जैसे नहीं होते। यही वजह है कि इनकी कहानियां अविवश्सनीय कम और अपनी-सी ज्यादा लगती हैं।
'कपूर एंड सन्स' की सहजता और जटिलता ही इसकी खासियत है। सहजता इस मायने में एक दाद अपने पोतों संग हर चीज शेयर करता है। वह उनके साथ सिगरेट कश लगाता है, गंदे-भद्दे मजाक कर लेता है, रंगीन फिल्मों की फरमाइश कर देता है वगैराह वगैराह...आप कह सकते हैं कि भला ऐसा भी कहीं होता है। लेकिन कहीं होता होगा, तो ऐसा ही होता। इसी तरह से दो भाईयों के बीच किसी बात हुई अनबन सालों तक खिंच जाने वाली बात घर आते ही सहज हो जाती है।
दोनों में लाख अनबन सही, लेकिन छोटा बड़े का कहा नहीं टालता। बावजूद इसके जब बात हर्ष के किसी अन्य महिला संग संबधों की आती है तो चीजें जटिल होने लगती हैं। दोनों भाईयों को जब पता चलता है कि वे टिआ को जानते हैं तो चीजें जटिल होने लगती हैं। घर के चार अलग-अलग किरदारों के बीच अपने-अपने स्तर पर युद्धा-सा चलता रहता है, लेकिन ये तमाम जटिलताएं सहज और विश्वसनीय ढंग से सामने आती हैं। ये बातें ही इस फिल्म की खासियत लगती हैं।
अभिनय की बात करें तो रजत-रत्ना को अच्छे कलाकार हैं ही, लेकिन यहां चौंकाने वाला काम किया है फवाद खान ने। अपनी पहली बॉलीवुड फिल्म 'खूबसूरत' के मुकाबले उन्होंने इस फिल्म ज्यादा खुलकर अभिनय किया है। उनके स्क्रीन पर आते ही हॉल में ही इज सो सेक्सी... जैसे जुमले सुनाई देते हैं। वो ऐसे जुमलों के असल में हकदार लगते भी हैं।
सिद्धार्थ मल्होत्रा अपनी पिछली फिल्म 'ब्रदर्स' के खोल से कुछ ज्यादा बाहर नहीं निकल पाये है। इसकी वजह ये भी हो सकती है कि वो भी दो भाईयों की कहानी ही थी, जिनके बीच नफरत का युद्ध चलता रहता है। ऋषि कपूर अपने किरदार में फिट नजर आये। एक वही हैं, जिन्होंने कॉमेडी का लंगर पूरे समय थामे रखा है।
फिल्म की अवधि करीब ढाई घंटे है, जिसे थोड़ा कम भी किया जा सकता था या एक-दो गीत और डाल कर इस लंबाई को रोचक बनाया जा सकता था। कुछ सीन्स भी खिंचे हुए से लगते हैं। ये फिल्म कपूरों की इमेज से थोड़ी-सी अलग है और यही बात इसे एक अच्छी टाइमपास फिल्म की श्रेणी तक ले जाती है।
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