
कुछ दिन पूर्व दैनिक भास्कर समूह के अंग्रेजी अखबार डीएनए के मुंबई दफ्तर में लता मंगेशकर पधारीं। यह शायद पहली बार था जब इक्यासी वर्षीय भारत रत्न प्राप्त गायिका किसी अखबार के दफ्तर में र्गई। अखबार की गौरी सिंह ने उनका साक्षात्कार लिया। आज टूटती हुई आस्थाओं और चरमराती व्यवस्था के दौर में चहुंओर छाए अंधेरे में लताजी के गाए गीत ही ढांढस देते हैं। अगर सरकार सम्मानित नहीं भी करती, तब भी वे सचमुच भारत रत्न हैं। उनके गाए गीतों में बीमारी दूर करने की क्षमता भी है। ‘मदर इंडिया’ फिल्म के लिए प्रसिद्ध फिल्मकार मेहबूब खान लंदन के अस्पताल में रक्तचाप और अनिद्रा से परेशान थे।
उन्होंने फोन पर मुंबई में बैठीं लताजी से फिल्म ‘चोरी-चोरी’ का ‘रसिक बलमा’ गाना सुनाने का आग्रह किया। लंदन के डॉक्टर आश्चर्यचकित रह गए कि गाना सुनने के बाद रक्तचाप नॉर्मल हो गया और थोड़ी देर बाद मरीज सो भी गया। अनगिनत लोगों ने अपने अवसाद और अकेलेपन के क्षणों में लताजी के गीत सुनकर राहत महसूस की है। इस तरह की बातें किसी रिकॉर्ड बुक में दर्ज नहीं होतीं और महानता का कितना ही लेखा-जोखा रिकॉर्ड नहीं होता। लताजी रिकॉर्डेड से ज्यादा अलिखित हैं। उनका ‘एक और इतिहास’ लिखा ही नहीं जा सकता।
उन्होंने अपनी सफलता के लिए उन तमाम गुणी संगीतकारों को धन्यवाद दिया। उन लोगों को शास्त्रीय संगीत की भरपूर जानकारी थी। डीएनए को ही लताजी ने बताया कि उस दौर के सभी गायक संगीतकार के निर्देशन में खूब रिहर्सल करते थे। कभी-कभी वे रफी साहब के साथ रिहर्सल के बाद रिकर्ॉ्िडग के समय एक सुर या तान नई लेती थीं और रफी साहब उसे साध लेते थे, परंतु रिकर्ॉ्िडग के बाद खफा होते थे और यह लताजी उन्हें छेड़ने के लिए करती थीं। दो महान प्रतिभाशाली लोगों के बीच चुहलबाजी भी सुरमय होती थी। आम आदमी शरारतों में कर्कश होता है। जीवन में गायन नहीं आने पर भी व्यक्ति सुरीला हो सकता है। विचार प्रक्रिया में लय होती है।
बहरहाल, लताजी को आश्चर्य है कि आज एक फिल्म में एक ही नायिका के लिए अलग गायिकाओं की आवाज में गाने रिकॉर्ड होते हैं। संगीतकारों को भी इस तरह की बातों की परवाह नहीं है। सुनिधि चौहान अच्छी गायिका हैं, परंतु उनके द्वारा गाई लोरी शायद पसंद न की जाए। श्रेया घोषाल और सोनू निगम, शान इत्यादि की प्रशंसा करते हुए उन्होंने आश्चर्य व्यक्त किया कि अलका याग्निक आजकल पाश्र्व गायन नहीं करती हैं। आजकल प्रसिद्ध होने के लिए पाश्र्व गायन के साथ टेलीविजन पर एंकरिंग और स्टेज शो इत्यादि नए प्लेटफॉर्म उपलब्ध हैं, जिनमें पाश्र्व गायन से अधिक धन मिलता है। लताजी ने इस आशय की बात कही कि प्लेटफॉर्म मुख्य रास्ता ही बन जाए तो प्रतिभा के साथ अन्याय हो सकता है। आधी सदी से अधिक के कॅरियर में लताजी ने कभी अपनी एकाग्रता नहीं खोई, कभी मुख्य मार्ग नहीं छोड़ा।
अपनी बहन आशा भोंसले के कुछ विदेशी गायकों के साथ किए गए साझा प्रयास के बारे में उन्होंने कहा कि विदेशी वहां की मुख्यधारा का महत्वपूर्ण व्यक्ति हो तो ही काम करना चाहिए। साझा प्रयास में दोनों पलड़े समान होना चाहिए। उन्होंने आशाजी के सारे गीत सुने हैं। दोनों ही बहनें प्रतिभाशाली हैं और उनके बीच स्वस्थ प्रतिद्वंद्विता भी रही है। लताजी दिव्य वरदान हैं, आशाजी चंचल साधक। दोनों बहनें मुंबई के पैडर रोड पर प्रभुकुंज नामक इमारत के एक ही तल पर दो फ्लैट में रही हैं, परंतु प्रतिद्वंद्विता और मतभेद के बावजूद इन फ्लैट्स के बीच का जोड़ने वाला दरवाजा कभी बंद नहीं किया गया। कुदरत ने जो खुला छोड़ा है, उसे इंसान कैसे बंद कर सकता है?
लताजी को अपने गाए हुए हजारों गीतों में सबसे अधिक प्रिय खेमचंद प्रकाश के लिए गाया मधुबाला अभिनीत ‘महल’ का ‘आएगा आने वाला’ है। उस दौर में रिकॉर्ड पर गायिका का नाम नहीं, वरन उस पात्र का नाम आता था, जिस पर फिल्मांकन हुआ। मसलन ‘महल’ के रिकॉर्ड पर कंचन का नाम है। लताजी के प्रतिवाद के बाद तरीका बदला। इतना ही नहीं, गायन में रॉयल्टी के मुद्दे पर सभी गायकों को एक मंच पर एकत्रित किया और न्याय दिलाया। प्रचारित तो यह भी है कि इसी विषय पर राज कपूर से मतभेद के कारण उन्होंने ‘मेरा नाम जोकर’ में गीत नहीं गाया और उन्हीं राज कपूर ने अपनी ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ में लताजी का चार माह तक इंतजार किया। उन दिनों वे विदेश में स्टेज शो के दौरे पर थीं। दरअसल लताजी की प्रेरणा से ही राज कपूर ने इस फिल्म की कल्पना की थी और वर्ष 1955 में वे लताजी को बतौर नायिका लेकर यह फिल्म बनाना चाहते थे।
बहरहाल, लताजी से प्रार्थना की जानी चाहिए कि वे अपनी आत्मकथा लिखें, जो कमोबेश भारतीय फिल्म संगीत का इतिहास भी होगा। वे ही जानती हैं कि इस क्षेत्र में कब, कैसे इतने परिवर्तन हुए हैं। इसमें वे पंकज राग की सहायता भी ले सकती हैं।
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