
कलाकारः शाहिद कपूर, सोनम कपूर, सुप्रिया पाठक, अनुपम खेर
अभिनेता पंकज कपूर की पहली निर्देशकीय फिल्म उनके अपने स्वभाव जैसी हैः कम और काम का बोलना, भावों से ज्यादा कहना. मौसम एक नितांत संजीदा प्रेम/त्रास कथा है.
एक जैविक-से कैनवस पर चुप्पियों की निब-पेंसिल से उकेरी हुई. नाटकीय मोड़ भी ऊंट के कूबड़ से उभरे न होकर बाल में दानों से गुंथे-बिंधे. एक भांगड़ा है, जो इस लय और टेंपरामेंट में थोड़ी-सी लपलपी/ विचलन पैदा करता है.
मल्लूकोट के सरसों दे खेतां विच पला-कढ़ा दौड़ाक मुंडा हैरी (शाहिद) गमगीन पर गुनगुनी मुस्कान वाली आयत (सोनम) को देखकर जैसे होश ही खो देता है. ''पहली ही तकनी में बन गई जान पे.'' कश्मीर से विस्थापन की मारी आयत मल्लूकोट, मुंबई, स्कॉटलैंड, अहमदाबाद आदि का एक लंबा सफर तय करती है. हैरी उसके पीछे है और दर्शक भी.
कश्मीर, अयोध्या, मुंबई, करगिल, गुजरात के कांड इस कहानी को आग भी देते हैं और पर्याप्त धुआं भी. बतौर लेखक पंकज कपूर ने इस धुएं को अगियार की तरह पूरी कहानी में यकसां पसारा है. माहौल में भी और संवादों में भी. इसके लोकेल्स और सेट्स के लिए, हाल ही दिवंगत कला निर्देशक समीर चंदा याद किए जाएंगे.
संवादों की संक्षिप्तता देखिएः ''सलाम बुआ, सलामत रहो बी.'' और उनमें कविताः ''मुझे ऐसा कोई नशा मं.जूर नहीं जो वक्त के साथ उतर जाता हो.'' इरशाद कामिल के गाने नैरेटिव को जैसे हथेली पर लेकर चलते हैं: ''तेरा शहर जो पीछे छूट रहा, कुछ अंदर-अंदर टूट रहा.''
तमाम सामाजिक रिश्तों की धड़कन लगातार यहां महसूस की जा सकती है. शाहिद ने तो खैर उम्दा किया ही है, सोनम की हंसी और जबान को संयमित कर पंकज ने इस अभिनेत्री को नई .जिंदगी दी है.
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